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Uttar Pradesh: में SIR अभियान ने पलट दिया बीजेपी का शहरी गणित, गांवों की ओर लौट रहे लाखों वोटर

Uttar Pradesh:  में चल रहा विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (SIR) अभियान अब भारतीय जनता पार्टी के लिए किसी बड़े सियासी संकट से कम नहीं रह गया है। लंबे समय से शहरों में मजबूत पकड़ रखने वाली भाजपा अचानक अपने सबसे भरोसेमंद वोट बैंक को खिसकता हुआ देख रही है। वजह एकदम साफ है – शहरों में रहने वाले लाखों लोग अपना वोट फिर से अपने पुश्तैनी गांव में स्थानांतरित (transferred)करवा रहे हैं या जानबूझकर फॉर्म जमा ही नहीं कर रहे, ताकि उनका नाम ग्रामीण मतदाता सूची में बना रहे। नतीजा यह हुआ कि शहरी विधानसभा और लोकसभा सीटों पर वोटरों की संख्या तेजी से घटी है और भाजपा के माथे पर बल पड़ गए हैं।

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गांव की ओर बढ़ता मतदाता झुकाव, शहर खाली होते जा रहे हैं लोग शहर में नौकरी करते हैं, व्यापार करते हैं, लेकिन जब वोट देने की बारी आती है तो अधिकांश अपने मूल गांव को ही तरजीह दे रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने साफ कर दिया है कि एक व्यक्ति का नाम केवल एक ही जगह रह सकता है। इसके बाद शहरों में रहने वाले लोगों के सामने दो रास्ते थे – या तो शहर का पता अपडेट करें या गांव वाला ही रखें। ज्यादातर ने दूसरा रास्ता चुना। इसके पीछे पुश्तैनी जमीन-जायदाद, परिवार की सामाजिक पहचान, पंचायत चुनावों में हिस्सेदारी और भविष्य में होने वाले संपत्ति विवादों से बचने जैसे कई ठोस कारण हैं। नतीजतन लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, गाजियाबाद, नोएडा, आगरा, मेरठ जैसे बड़े शहरों में हजारों-लाखों वोटरों के नाम कटने की कगार पर पहुंच गए हैं।

किन शहरों में सबसे ज्यादा असर दिख रहा है?

सफाई अभियान में सबसे कम फॉर्म जमा होने वाले शहर ही भाजपा के गढ़ माने जाते रहे हैं। प्रयागराज में करीब 2.4 लाख, लखनऊ में 2.2 लाख, गाजियाबाद में 1.6 लाख, सहारनपुर में 1.4 लाख से ज्यादा लोग अब भी फॉर्म जमा नहीं कर पाए हैं। ये वो क्षेत्र हैं जहां पिछले कई चुनावों से भाजपा को 60-70 फीसदी तक शहरी मत मिलते रहे हैं। अगर इतनी बड़ी संख्या में नाम कट गए तो कई सीटों पर जीत का अंतर ही पलट सकता है। प्रदेश भर में अभी तक करीब 17.7 प्रतिशत फॉर्म वापस नहीं आए हैं, यानी लगभग 2.45 करोड़ मतदाताओं का भविष्य अधर में लटका है।

भाजपा के लिए शहरी वोट क्यों हैं जान की बात?

शहरों में रहने वाला मध्यम वर्ग, व्यापारी, नौकरीपेशा युवा और प्रोफेशनल्स भाजपा का कोर वोटर माना जाता है। 2014, 2017, 2019 और 2022 के चुनावों में इन्हीं लोगों ने भारी मतदान कर पार्टी को शानदार जीत दिलाई थी। लेकिन अब यही वोट बैंक सिकुड़ता दिख रहा है। दूसरी तरफ गांवों में जातीय समीकरण, स्थानीय नेता और पंचायत स्तर की राजनीति ज्यादा असर रखती है। वहां भाजपा का वोट एकजुट रहता ही नहीं है। अगर शहरी सीटों पर दो-तीन लाख वोट भी कम हो गए तो कई विधानसभा क्षेत्रों में हार-जीत का फैसला बदल सकता है।

दो दशक बाद इतनी बड़ी मतदाता सूची सफाई क्यों?

पिछले 20-25 साल में मतदाता सूची की इतनी गहन जांच कभी नहीं हुई थी। इस बार तीन बड़े कारणों से लाखों नाम हटने की संभावना बनी है। पहला – नौकरी, पढ़ाई और रोजगार की तलाश में लाखों लोग गांव से शहर और दूसरे राज्यों में जा बसे, लेकिन उनका नाम पुराने पते पर ही रहा। दूसरा – मृतकों के नाम आज तक सूची में बने हुए थे। तीसरा – डुप्लीकेट और फर्जी वोटरों की बड़ी संख्या थी। इन सबके बीच एक नया ट्रेंड उभरा है कि शहर में रहने वाला व्यक्ति फिर भी अपना वोट गांव में रखना चाहता है। यही ट्रेंड भाजपा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है।

चुनाव आयोग भी है चिंता में, समय बढ़ने के संकेत इतनी बड़ी संख्या में फॉर्म नहीं आने से निर्वाचन आयोग भी परेशान है। 2.45 करोड़ लोगों का नाम एक झटके में हटना भारी विवाद पैदा कर सकता है। इसलिए संकेत मिल रहे हैं कि फॉर्म जमा करने की अंतिम तारीख को एक सप्ताह और बढ़ाया जा सकता है। भाजपा के नेता भी लगातार आयोग से यही मांग कर रहे हैं ताकि उनके शहरी वोटरों को एक और मौका मिल सके।

अंत में यही लग रहा है कि यह SIR अभियान उत्तर प्रदेश की राजनीति का गेम-चेंजर साबित होने जा रहा है। शहरों से गांवों की ओर लौटता वोटर और सिकुड़ता शहरी वोट बैंक – ये दोनों मिलकर 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा के सामने नया सियासी संकट खड़ा कर रहे हैं।

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