Justice J Nisha Bano Transfer: जस्टिस जे निशा बानो को केरल HC भेजने का आदेश, राष्ट्रपति ने तय की अंतिम तारीख
Justice J Nisha Bano Transfer: भारतीय न्यायपालिका में ट्रांसफर से जुड़े मामलों को आमतौर पर नियमित प्रक्रिया माना जाता है, लेकिन मद्रास हाईकोर्ट की जज न्यायमूर्ति जे. निशा बानो का मामला इन दिनों खासा चर्चित (Discussed) हो गया है। लगभग दो महीने पहले केरल हाईकोर्ट में ट्रांसफर होने के बावजूद पदभार ग्रहण न करने पर अब राष्ट्रपति की ओर से स्पष्ट निर्देश जारी किया गया है। यह मामला न केवल न्यायिक प्रक्रिया, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था की गंभीरता को भी उजागर करता है।

राष्ट्रपति का निर्देश: समयसीमा में दिखी सख्ती (Strictness)
कानून मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, राष्ट्रपति ने भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद न्यायमूर्ति जे. निशा बानो को 20 दिसंबर 2025 तक या उससे पहले केरल हाईकोर्ट में पदभार ग्रहण करने का निर्देश दिया है। यह आदेश राष्ट्रपति की संवैधानिक (Constitutional) भूमिका और न्यायपालिका में अनुशासन बनाए रखने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
ट्रांसफर की पृष्ठभूमि: अधिसूचना और प्रक्रिया (Procedure)
केंद्र सरकार ने 14 अक्टूबर 2025 को जस्टिस बानो के मद्रास हाईकोर्ट से केरल हाईकोर्ट ट्रांसफर की अधिसूचना जारी की थी। आम तौर पर ऐसी अधिसूचना के बाद जज जल्द ही नए हाईकोर्ट में कार्यभार संभाल लेते हैं। लेकिन इस मामले में देरी ने न्यायिक व्यवस्था की पारदर्शिता (Transparency) पर सवाल खड़े कर दिए।
देरी से बढ़ी बार एसोसिएशन की बेचैनी (Anxiety)
लगभग दो महीने तक पदभार ग्रहण न करने के कारण केरल हाईकोर्ट बार के सदस्यों में असमंजस और बेचैनी बढ़ने लगी। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, वकीलों को यह स्पष्ट नहीं था कि न्यायमूर्ति बानो की स्थिति क्या है। यह स्थिति न्यायिक कामकाज की निरंतरता (Continuity) के लिहाज से भी अहम मानी जा रही थी।
जस्टिस बानो की सफाई: व्यक्तिगत कारण और प्रतीक्षा (Waiting)
इस पूरे विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए न्यायमूर्ति जे. निशा बानो ने एक समाचार पत्र को बताया कि उन्होंने अपने बेटे के विवाह के कारण मद्रास हाईकोर्ट में अर्जित अवकाश के लिए आवेदन किया था। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वह अपने ट्रांसफर पर पुनर्विचार के अनुरोध के परिणाम का इंतजार कर रही थीं। यह बयान उनके व्यक्तिगत दृष्टिकोण (Perspective) को सामने लाता है।
संसद में उठा सवाल: कांग्रेस सांसद की जिज्ञासा (Inquiry)
इस मुद्दे ने संसद का भी ध्यान खींचा। कांग्रेस सांसद केएम सुधा आर ने लोकसभा में सवाल उठाते हुए केंद्रीय कानून मंत्रालय से स्पष्टीकरण मांगा। उन्होंने पूछा कि क्या न्यायमूर्ति बानो अभी भी मद्रास हाईकोर्ट के कॉलेजियम का हिस्सा हैं और क्या उन्होंने जजों की नियुक्ति से जुड़ी किसी सूची पर हस्ताक्षर किए हैं। यह सवाल न्यायिक जवाबदेही (Accountability) से जुड़ा हुआ था।
कानून मंत्री का जवाब: संविधान पर फोकस (Focus)
केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने इन सवालों का सीधा जवाब देने के बजाय न्यायिक नियुक्तियों और ट्रांसफर से जुड़े संवैधानिक ढांचे को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया में राष्ट्रपति और भारत के मुख्य न्यायाधीश की अहम भूमिका होती है। मंत्री का यह रुख संवैधानिक मर्यादा (Dignity) को प्राथमिकता देने वाला माना गया।
अनुच्छेद 217 का महत्व: संवैधानिक व्याख्या (Interpretation)
कानून मंत्री ने संविधान के अनुच्छेद 217 का हवाला देते हुए बताया कि जब किसी जज का दूसरे हाईकोर्ट में ट्रांसफर होता है, तो उसे अपने मौजूदा पद को रिक्त करना होता है। अनुच्छेद 217(1)(ग) के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा ट्रांसफर किए जाने पर जज का पद स्वतः खाली हो जाता है। यह प्रावधान न्यायिक स्पष्टता (Clarity) सुनिश्चित करता है।
न्यायपालिका और प्रशासन के बीच संतुलन (Balance)
जस्टिस जे. निशा बानो का यह मामला न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन को समझने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है। एक ओर व्यक्तिगत परिस्थितियां हैं, तो दूसरी ओर संवैधानिक जिम्मेदारियां। राष्ट्रपति का निर्देश यह संकेत देता है कि अंततः संस्थागत अनुशासन (Discipline) सर्वोपरि है।
निष्कर्ष: समय पर निर्णय ही न्याय की विश्वसनीयता (Credibility)
इस पूरे घटनाक्रम से साफ है कि न्यायिक प्रणाली में समय और प्रक्रिया का पालन बेहद जरूरी है। 20 दिसंबर 2025 की समयसीमा यह तय करेगी कि मामला किस दिशा में आगे बढ़ता है। अंततः, न्यायपालिका की विश्वसनीयता (Trustworthiness) तभी बनी रहती है, जब नियमों का पालन सख्ती से किया जाए।



