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India Foreign Policy Debates: विपक्ष से बर्दाश्त नहीं हुआ राष्ट्रनीति पर शशि थरूर का प्रहार, क्या परिवार से बड़ा हो गया है देश का स्वाभिमान…

India Foreign Policy Debates: भारतीय राजनीति के गलियारे में उस समय हलचल मच गई जब कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने विदेश नीति को लेकर एक ऐसा बयान दिया, जिसने पार्टी लाइन से इतर राष्ट्रभक्ति की एक नई परिभाषा गढ़ दी। थरूर के इस रुख ने न केवल उनकी अपनी पार्टी के भीतर बेचैनी पैदा कर दी है, बल्कि सत्ता पक्ष को भी एक बड़ा मुद्दा थमा दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश का प्रतिनिधित्व करने वाली (Diplomatic National Interest) किसी एक दल की बपौती नहीं होती, बल्कि यह पूरे 140 करोड़ भारतीयों की साझा विरासत और पहचान होती है।

India Foreign Policy Debates
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भाजपा का पलटवार और राहुल गांधी पर तीखे वार

शशि थरूर के इस बयान के तुरंत बाद भाजपा प्रवक्ता शहजाद पूनावाला ने मैदान संभालते हुए कांग्रेस नेतृत्व, विशेषकर राहुल गांधी पर तीखा हमला बोला। पूनावाला ने कहा कि थरूर ने अपनी ही पार्टी के शीर्ष नेता को आईना दिखाने का साहस किया है, जो अक्सर विदेशी धरती पर देश की छवि को धूमिल करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि राहुल गांधी का (Political Accountability Gap) इतना बढ़ गया है कि वे भाजपा और प्रधानमंत्री से नफरत करते-करते अनजाने में भारत विरोध की राह पर चल पड़े हैं, जो लोकतंत्र के लिए एक चिंताजनक संकेत है।

क्या परिवारवाद और राष्ट्रवाद के बीच फंसी है कांग्रेस?

भाजपा ने थरूर के बयान का समर्थन करते हुए यह सवाल खड़ा किया है कि क्या कांग्रेस में अब राष्ट्रीय हित को परिवार के हित से ऊपर रखना एक गुनाह बन गया है। पूनावाला ने ऑपरेशन सिंदूर जैसे संवेदनशील मुद्दों का जिक्र करते हुए कहा कि राहुल गांधी की सोच केवल एक परिवार तक सीमित (Institutional Leadership Crisis) होकर रह गई है। उन्होंने अंदेशा जताया कि आने वाले समय में कांग्रेस थरूर जैसे स्वतंत्र सोच रखने वाले नेताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी कर सकती है, क्योंकि वहां स्वतंत्र विचारों के लिए स्थान कम होता जा रहा है।

थरूर के शब्दों में नेहरूवादी राष्ट्रवाद की गूंज

दरअसल, शशि थरूर ने एक मीडिया चैनल से बातचीत के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक शब्दों को याद करते हुए राजनीति और राष्ट्रनीति के बीच का अंतर समझाया था। उन्होंने दोटूक शब्दों में कहा कि यदि कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री की अंतरराष्ट्रीय हार पर खुशी मनाता है, तो वह वास्तव में भारत की हार का जश्न (Nationalist Ideology Shift) मना रहा होता है। थरूर का तर्क था कि सरकारों के आने-जाने से देश की विदेश नीति का मूल तत्व नहीं बदलना चाहिए, क्योंकि अंततः भारत की गरिमा ही सर्वोपरि है।

कांग्रेस का बचाव और लोकतंत्र की दुहाई

इस पूरे विवाद पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वी. हनुमंत राव ने पार्टी का बचाव करते हुए एक अलग ही पक्ष रखा है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस एक ऐसा मंच है जहां आंतरिक लोकतंत्र जीवित है और हर सदस्य को अपनी व्यक्तिगत राय रखने की पूरी आजादी (Democratic Freedom of Speech) हासिल है। राव के अनुसार, थरूर का बयान उनकी निजी सोच हो सकती है और इसे पूरी पार्टी का आधिकारिक रुख मान लेना गलत होगा। उन्होंने यह भी तंज कसा कि अगर भाजपा जैसी पार्टी में कोई ऐसा बयान देता, तो अब तक उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया होता।

विदेश नीति पर बढ़ती आंतरिक कलह के मायने

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि थरूर का यह बयान कांग्रेस के भीतर चल रहे वैचारिक मंथन का परिणाम है, जहां एक धड़ा अधिक आक्रामक और दूसरा धड़ा अधिक संतुलित रहना चाहता है। जब हम वैश्विक स्तर पर (Global Strategic Positioning) की बात करते हैं, तो भारत की एकता ही हमारी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरती है। थरूर ने संभवतः इसी एकता की वकालत की है, ताकि दुनिया को यह संदेश जाए कि चुनावी मतभेदों के बावजूद, देश की सीमा और सम्मान के मुद्दे पर पूरा भारत एक स्वर में बोलता है।

राहुल गांधी की छवि और भाजपा के गंभीर आरोप

भाजपा प्रवक्ता ने राहुल गांधी को ‘भारत विरोध का स्थायी प्रतिनिधि’ करार देते हुए उन पर पुतिन जैसे वैश्विक नेताओं के संदर्भ में भी विवादित बयान देने के आरोप लगाए। पूनावाला ने कहा कि जब देश तरक्की की राह पर (Foreign Policy Consistency) के साथ आगे बढ़ रहा है, तब विपक्ष का इस तरह नकारात्मक नैरेटिव सेट करना दुर्भाग्यपूर्ण है। उनके अनुसार, राहुल गांधी को थरूर से सीखना चाहिए कि कैसे विपक्ष में रहते हुए भी रचनात्मक आलोचना और देशहित के बीच एक महीन रेखा बनाए रखी जाती है।

क्या थरूर की ‘साफगोई’ उन पर भारी पड़ेगी?

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या शशि थरूर की यह बेबाक टिप्पणी उनके राजनीतिक भविष्य को प्रभावित करेगी या फिर यह कांग्रेस की छवि सुधारने में मददगार साबित होगी। भारतीय राजनीति में (Bipartisan Consensus Development) की कमी अक्सर देखने को मिलती है, लेकिन थरूर ने जो चिंगारी सुलगाई है, वह आने वाले संसद सत्र में भी चर्चा का केंद्र बनी रह सकती है। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस इस आंतरिक विरोधाभास को कैसे संभालती है और भाजपा इस मौके का कितना राजनीतिक लाभ उठा पाती है।

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