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UK Electric Vehicle Policy Crisis: इलेक्ट्रिक वाहनों की जिद और उत्सर्जन मानकों के बदलते खेल में फंसी बड़ी कंपनियां

UK Electric Vehicle Policy Crisis: यूरोपीय संघ द्वारा अपने सख्त उत्सर्जन मानकों को नरम करने के स्पष्ट संकेत दिए जाने के बाद, अब ब्रिटेन के इलेक्ट्रिक वाहन लक्ष्यों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। जहां एक ओर पूरा यूरोप टेलपाइप उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म करने की तय समयसीमा पर गंभीरता से पुनर्विचार कर रहा है, वहीं ब्रिटेन अब भी अपने बेहद आक्रामक और महत्वाकांक्षी ईवी रोडमैप पर अडिग नजर आ रहा है। इस बढ़ते कूटनीतिक और औद्योगिक अंतर ने ब्रिटेन को (International Automotive Trade) के नक्शे पर एक ऐसी जटिल स्थिति में खड़ा कर दिया है, जहां उसे अपने सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार से अलग होकर फैसले लेने पड़ रहे हैं।

UK Electric Vehicle Policy Crisis
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ब्रिटेन का सख्त जीरो-एमिशन रोडमैप और उसकी चुनौतियां

ब्रिटेन की वर्तमान जीरो-एमिशन व्हीकल (ZEV) नीति दुनिया की सबसे कठोर नीतियों में से एक मानी जा रही है। इसके तहत कार निर्माताओं को हर साल अपने कुल बेचे गए वाहनों में इलेक्ट्रिक कारों और वैन की हिस्सेदारी अनिवार्य रूप से बढ़ानी होगी। लक्ष्य यह है कि 2035 तक देश में बिकने वाला हर नया वाहन (Sustainable Mobility Standards) के अनुरूप शत-प्रतिशत शून्य-उत्सर्जन वाला हो। एस्टन मार्टिन और जगुआर लैंड रोवर जैसे प्रतिष्ठित ब्रिटिश ब्रांड्स की मौजूदगी के बावजूद, विशेषज्ञों का मानना है कि जब पड़ोसी यूरोपीय देश अपने रुख में ढील दे रहे हैं, तब ब्रिटेन के लिए अकेले इस राह पर चलना जोखिम भरा हो सकता है।

निवेश के फैसलों पर मंडराती अनिश्चितता

वैश्विक ऑटोमोबाइल दिग्गज वर्तमान में इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि अगली पीढ़ी के ईवी प्लांट किस देश में लगाए जाएं। ब्रिटेन के कारखाने पहले से ही अत्यधिक ऊर्जा लागत, ब्रेक्जिट के बाद की व्यापारिक जटिलताओं और चीनी कंपनियों से मिल रही कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं। चूंकि ब्रिटेन में निर्मित अधिकांश गाड़ियां यूरोप को भेजी जाती हैं, इसलिए (European Union Regulation) से अलग नीति अपनाना निवेशकों के मन में संशय पैदा कर रहा है। कंपनियों को डर है कि नियमों का यह विरोधाभास उनके उत्पादन खर्च को बढ़ा सकता है और मुनाफे में कमी ला सकता है।

ईवी अपनाने में ब्रिटेन की बढ़ती रफ्तार और खतरे

अगर उपभोक्ता स्तर पर देखा जाए, तो ब्रिटेन ने यूरोप के कई विकसित देशों के मुकाबले इलेक्ट्रिक वाहनों को अधिक तेजी से अपनाया है। पिछले एक साल के आंकड़े बताते हैं कि ब्रिटेन में नई कार बिक्री का लगभग 22 प्रतिशत हिस्सा पूरी तरह इलेक्ट्रिक मॉडल्स का रहा है, जो (Electric Car Adoption) के मामले में जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों से काफी बेहतर प्रदर्शन है। हालांकि, इस सकारात्मक रुख के साथ जोखिम भी जुड़ा है क्योंकि बाजार में बीवाईडी और ओमोडा जैसे चीनी ब्रांड्स की पकड़ मजबूत हो रही है, जिससे स्थानीय निर्माताओं के लिए अपना अस्तित्व बचाना कठिन होता जा रहा है।

यूरोपीय बाजार पर ब्रिटिश ऑटो उद्योग की गहरी निर्भरता

ब्रिटेन की ऑटोमोबाइल अर्थव्यवस्था पूरी तरह से यूरोप में होने वाले नीतिगत बदलावों से बंधी हुई है। उद्योग संगठन एसएमएमटी के आंकड़ों के अनुसार, ब्रिटेन में बनने वाली लगभग 75 प्रतिशत कारों का निर्यात किया जाता है, जिसमें से आधा हिस्सा सीधे तौर पर यूरोपीय संघ के बाजारों में जाता है। सेक्टर के भीतर करीब दो लाख लोगों का (Automotive Industry Employment) सीधे तौर पर इस व्यापार पर टिका हुआ है। उद्योग जगत का मानना है कि यदि ब्रिटेन की नीतियां यूरोप से बहुत ज्यादा अलग होती हैं, तो निर्यात बाजार में ब्रिटिश कारों की मांग और पहुंच पर नकारात्मक असर पड़ना तय है।

बार-बार बदलती समयसीमा ने पैदा की उलझन

ब्रिटेन में पिछले कुछ वर्षों के दौरान ईवी नीति को लेकर राजनीतिक स्तर पर काफी अस्थिरता देखी गई है। 2017 में 2040 तक पेट्रोल-डीजल कारों पर प्रतिबंध की बात कही गई, जिसे बाद में 2030 किया गया और फिर ऋषि सुनक के कार्यकाल में इसे 2035 तक खिसका दिया गया। बार-बार किए गए इन (Policy Flip Flops) ने वाहन निर्माताओं की दीर्घकालिक योजनाओं को बुरी तरह प्रभावित किया है। कंपनियों को यह समझ नहीं आ रहा कि वे अपनी रिसर्च और डेवलपमेंट की दिशा किस आधार पर तय करें, क्योंकि सरकार के फैसले बाजार की मांग के बजाय राजनीतिक लाभ से प्रेरित नजर आते हैं।

निसान जैसी कंपनियों की बदली उत्पादन रणनीति

यूरोपीय संघ के बदलते रुख का सीधा प्रभाव अब कंपनियों की उत्पादन योजनाओं पर दिखने लगा है। निसान जैसी दिग्गज कंपनी के अधिकारियों ने संकेत दिए हैं कि वे अब केवल पूर्ण इलेक्ट्रिक के बजाय प्लग-इन हाइब्रिड वाहनों के उत्पादन पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। सुंदरलैंड स्थित (Nissan Manufacturing Plant) में पहले ही भारी निवेश किया जा चुका है, लेकिन अब कंपनी अपने पोर्टफोलियो में विविधता लाने की योजना बना रही है। यह बदलाव दर्शाता है कि उद्योग जगत अब पूरी तरह इलेक्ट्रिक होने के बजाय एक मध्यम मार्ग अपनाने की ओर बढ़ रहा है।

टैक्स और स्वास्थ्य संबंधी दुविधाएं

वाहन निर्माता अब सरकार से ‘पे-पर-माइल’ जैसे प्रस्तावित टैक्सों पर पुनर्विचार करने की मांग कर रहे हैं, जो इलेक्ट्रिक वाहन मालिकों की जेब पर अतिरिक्त बोझ डाल सकते हैं। वहीं, कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि अगर सरकार (Public Health Objectives) को प्राथमिकता देती है, तो उसे उत्सर्जन मानकों में कोई ढील नहीं देनी चाहिए। हवा की गुणवत्ता और शहरों में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए सख्त नियमों का होना आवश्यक है, लेकिन इसके लिए उद्योगों को मिलने वाले समर्थन और करों में छूट की नीति को भी स्पष्ट करना होगा ताकि विकास और स्वास्थ्य के बीच संतुलन बना रहे।

क्या ब्रिटेन को अपने रुख में बदलाव करना होगा?

अंततः, ब्रिटेन की ईवी नीति एक ऐसे चौराहे पर खड़ी है जहां उसे अपने पर्यावरण लक्ष्यों और औद्योगिक भविष्य के बीच चुनाव करना है। यूरोप का लचीला रुख निश्चित रूप से ब्रिटिश सरकार पर दबाव बढ़ाएगा कि वह अपनी (Green Energy Transition) की गति को थोड़ा धीमा करे। आने वाले कुछ महीने यह तय करेंगे कि क्या ब्रिटेन वैश्विक मंच पर एक ईवी सुपरपावर के रूप में उभरेगा या फिर अपनी सख्त नीतियों के बोझ तले दबकर अपने ऑटोमोबाइल उद्योग को संकट में डाल देगा।

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