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Indian Worker Death: परदेस में कमाने गए इकलौते बेटे की हुई मौत, दिव्यांग पिता की पथराई आंखों को अब बेटे के शव का इंतजार

Indian Worker Death: बिहार के सारण जिले के एक छोटे से गांव मोहन कोठिया में इन दिनों सन्नाटा पसरा हुआ है, लेकिन यह सन्नाटा शांति का नहीं बल्कि एक गहरी चीख का है। रोजगार की तलाश में सात समंदर पार सऊदी अरब गए 26 वर्षीय मंसूर आलम की एक सड़क हादसे में दर्दनाक मौत हो गई है। मक्का-मदीना जैसे पवित्र क्षेत्र में हुई इस (Tragic Road Accident) ने न केवल एक नौजवान की जिंदगी छीन ली, बल्कि उस बूढ़े और दिव्यांग पिता की लाठी भी तोड़ दी जो अपने बेटे की कामयाबी की दुआएं मांगते नहीं थकते थे। मंसूर घर का इकलौता कमाऊ सदस्य था, जिसकी असमय विदाई ने पूरे दरियापुर थाना क्षेत्र को शोक के सागर में डुबो दिया है।

Indian Worker Death
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गरीबी से जंग लड़ने गया था परदेस और बन गया काल का ग्रास

मंसूर आलम की कहानी किसी भी आम बिहारी युवक की तरह संघर्षों से भरी थी। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति को सुधारने और अपने छोटे भाइयों के भविष्य को संवारने के लिए उसने विदेश जाने का कठिन फैसला लिया था। वह सऊदी अरब की प्रसिद्ध बिल्लादीन कंपनी में (Professional Electrician Job) के पद पर कार्यरत था और अपनी मेहनत से धीरे-धीरे परिवार की दुश्वारियों को कम कर रहा था। बताया जा रहा है कि अपनी ड्यूटी खत्म कर जब वह वापस लौट रहा था, तभी एक तेज रफ्तार वाहन ने उसे अपनी चपेट में ले लिया। गंभीर हालत में उसे अस्पताल ले जाया गया, लेकिन विधि के विधान को कुछ और ही मंजूर था (Indian Worker Death) और इलाज के दौरान उसने दम तोड़ दिया।

दिव्यांग पिता और बेसहारा परिवार पर टूटा विपदाओं का पहाड़

मंसूर आलम के पिता मोहम्मद शमीम अंसारी दृष्टिबाधित हैं और उनकी दुनिया अपने बड़े बेटे के इर्द-गिर्द ही सिमटी हुई थी। मंसूर न केवल अपने पिता की आंखें था, बल्कि वह अपने दादा ऐनुल हक और दादी रहीम खातून के बुढ़ापे का एकमात्र सहारा भी था। घर में (Sole Breadwinner Responsibility) निभाते हुए वह अपने दो छोटे भाइयों, चांदी अली और अरमान अली की पढ़ाई का खर्च उठा रहा था। इसके अलावा, उसके कंधों पर अपनी तीन बहनों के हाथ पीले करने की एक बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी भी थी। उसकी मौत ने इस पूरे कुनबे को एक ऐसे अंधेरे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से आगे का रास्ता नजर नहीं आता।

कागजी उलझनों में फंसा पार्थिव शरीर और अपनों का अंतहीन इंतजार

दुख की बात यह है कि मंसूर की मौत को एक सप्ताह से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन उसका पार्थिव शरीर अब तक वतन नहीं पहुंच सका है। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के बीच (Repatriation of Remains) की जटिल कागजी प्रक्रियाएं परिवार के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रही हैं। एक तरफ मां का रो-रोकर बुरा हाल है, तो दूसरी तरफ दिव्यांग पिता अपने लाडले के चेहरे को आखिरी बार छूने की हसरत लिए बेसुध पड़े हैं। गांव के लोग और परिजन दिन-रात इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि कब सऊदी अरब से मंसूर का ताबूत उनके आंगन में उतरेगा ताकि उसे सुपुर्द-ए-खाक किया जा सके।

विदेश मंत्रालय और भारत सरकार से वतन वापसी की भावुक गुहार

पूरी तरह से टूट चुके परिजनों ने अब भारत सरकार और विदेश मंत्रालय से इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करने की मार्मिक अपील की है। उन्होंने (Consular Assistance Request) के जरिए गुहार लगाई है कि मानवीय आधार पर सरकार सऊदी अरब स्थित दूतावास से संपर्क साधे और शव को जल्द से जल्द भारत लाने की व्यवस्था करे। ग्रामीण और स्थानीय जनप्रतिनिधि भी इस मांग में परिवार के साथ खड़े हैं। उनका कहना है कि एक गरीब परिवार जो पहले ही अपना सब कुछ खो चुका है, उसके लिए अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं की दौड़-धूप करना मुमकिन नहीं है, ऐसे में शासन की संवेदनशीलता ही एकमात्र उम्मीद है।

सांत्वना देने पहुंचे गणमान्य लोग और गांव का मातम

जैसे ही मंसूर आलम की मौत की पुख्ता खबर गांव पहुंची, स्थानीय नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का वहां तांता लग गया। जिला परिषद सदस्य करुणेश सिंह उर्फ गुड्डू सिंह और मुखिया प्रतिनिधि सुभाष पांडेय सहित कई गणमान्य लोगों ने (Community Support Services) की भावना दिखाते हुए पीड़ित परिवार से मुलाकात की। पूर्व मुखिया हरि साहनी और मोहम्मद सिद्दकी ने भी शोक संतप्त परिवार को ढांढस बंधाया और आश्वासन दिया कि वे प्रशासन के स्तर पर शव को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। गांव का हर व्यक्ति आज दुखी है क्योंकि मंसूर केवल एक परिवार का बेटा नहीं, बल्कि पूरे गांव की उम्मीद था।

परदेस में जान गंवाने वाले मजदूरों की सुरक्षा पर एक बड़ा सवाल

मंसूर आलम की यह मौत एक बार फिर खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीय कामगारों की सुरक्षा और उनके कल्याणकारी अधिकारों पर सवाल खड़े करती है। अक्सर (Overseas Employment Challenges) का सामना करते हुए ये युवा अपनी जान जोखिम में डालते हैं ताकि वतन में रह रहे उनके परिजन दो वक्त की रोटी सम्मान के साथ खा सकें। आज मंसूर का घर उजाड़ हो चुका है और उसके पीछे रह गए आश्रितों का भविष्य अधर में लटका है। यह समय केवल शोक मनाने का नहीं है, बल्कि यह सोचने का भी है कि परदेस में अपनी जान गंवाने वाले इन गुमनाम नायकों के परिवारों को कैसे सुरक्षित और सहारा प्रदान किया जाए।

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