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Bihar: बिहार में आज मुस्लिम समुदाय नें किसी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार नहीं चुना

Bihar: इस हार ने विधानसभा चुनावों को लेकर सरगर्मी (stirring) बढ़ा दी है, जिसके नतीजे 14 नवंबर को घोषित होंगे। इसी कड़ी में, महागठबंधन ने राजद नेता और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को गठबंधन का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के संस्थापक मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया है।

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सहनी समुदाय बिहार की आबादी का लगभग 2.5 प्रतिशत है। इसकी तुलना में, बिहार में आज मुस्लिम समुदाय 18 प्रतिशत (percentage) है, जिनमें से अधिकांश महागठबंधन के मतदाता हैं। लालू यादव का राजनीतिक आधार हमेशा से मुस्लिम और यादव रहा है, लेकिन जब उपमुख्यमंत्री के नाम की घोषणा की बात आई, तो राजद, कांग्रेस और उनके सहयोगियों ने मुस्लिम उम्मीदवार चुनने से परहेज किया, क्योंकि उन्हें पता था कि उन्हें किसी भी कीमत पर मुस्लिम वोट मिलेंगे।

मुसलमान देश भर के कई निर्वाचन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं, लेकिन अपनी बड़ी संख्या के बावजूद, आज वे राजनीति में हाशिए (marginalization) पर नज़र आते हैं। अगर वे चाहते, तो राष्ट्रीय राजनीति में सकारात्मक योगदान दे सकते थे। कुछ मुसलमानों ने इस सामाजिक शून्य का फ़ायदा उठाया और अपने लिए उच्च राजनीतिक पद हासिल कर लिए, लेकिन समुदाय को इसका कभी फ़ायदा नहीं मिला।

वर्षों से, मुस्लिम समुदाय की दुर्दशा के लिए विभिन्न सरकारों को दोषी ठहराया जाता रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि मुस्लिम नेताओं की अक्षमता (disability) ने ही यह स्थिति पैदा की है। उनकी अक्षमता ने समुदाय के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी कीं। ऐसे समय में जब समुदाय को एक संतुलित राजनीतिक समझ की ज़रूरत थी, इन राजनीतिक नेताओं ने उन्हें छिछले आंदोलनों का सहारा लेने के लिए उकसाया। आज, जब चुनाव आते हैं, तो मुस्लिम इलाकों में एक अलग ही बेचैनी दिखाई देती है। यह इस बात का एक प्रतीकात्मक संकेत है कि गलती कहाँ हुई।

नेताओं के गुमराह मार्गदर्शन में, वे यह समझने में विफल रहे कि राजनीति में भाग लेने का अर्थ देश की राजनीतिक प्रक्रिया में पूर्ण योगदान देना है। केवल चिंता व्यक्त करना ही पर्याप्त नहीं है; पूरे समुदाय को राष्ट्र निर्माण में शामिल होना होगा। आज, मुस्लिम समुदाय में सबसे ज़रूरी ज़रूरत धर्मनिरपेक्ष (secular) शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना है। पिछले 150 वर्षों में, मुसलमानों ने कई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर संस्थानों ने समाज में संकीर्णता को बढ़ावा देने का ही काम किया है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जर्मनी और जापान के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। उनके नेतृत्व को यह एहसास हो गया कि वर्चस्व (dominance) के संघर्ष में वे सब कुछ खो देंगे। इन देशों ने अपने नागरिकों की ऊर्जा शिक्षा पर केंद्रित की, न कि दूसरों को हराने या जीतने पर। परिणामस्वरूप, जो राष्ट्र मात्र 60 वर्ष पहले तक अपनी स्थिति बनाए रखने में असमर्थ प्रतीत होते थे, वे अब तकनीकी रूप से शक्तिशाली माने जाने लगे हैं।

यह देखकर दुख होता है कि देश में मुस्लिम समुदाय का वोट जीत या हार तक ही सीमित है। जब वे वोट देने जाते हैं, तो उनका एजेंडा (Agenda) केवल किसी पार्टी या उसके उम्मीदवार को हराना या जीतना होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढाँचा और राष्ट्र निर्माण जैसे मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। नतीजा बेरोज़गारी और अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा पाने की चुनौती है।

आज, किसी भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र में एक भी अच्छा अस्पताल, स्कूल या कॉलेज नहीं मिलता। कुछ राजनीतिक दल इसी सोच का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती (beauty) यही है कि एक पक्ष जीतता है और दूसरा हारता है, लेकिन यह जीत और हार चुनावों तक ही सीमित रहनी चाहिए। एक पक्ष के जीतने के बाद, सभी को देश हित में मिलकर काम करना चाहिए। लगातार विरोध का खुद के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

आज मुस्लिम समुदाय को सच्चर समिति जैसी रिपोर्ट की नहीं, बल्कि अपने भीतर जागरूकता पैदा करने की ज़रूरत है। उनकी दुर्दशा (plight) के लिए सरकारें नहीं, बल्कि वे नेता ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने उन्हें वैचारिक रसातल में धकेल दिया और उन्हें सिर्फ़ वोट बैंक बना दिया। आज मुस्लिम समुदाय को उस तरह के नेतृत्व की ज़रूरत है जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी और जापान को मिला था, न कि उस तरह के नेतृत्व की जो अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए उनका शोषण करता हो।

अगर हम इन नेताओं के घरों पर नज़र डालें, तो हम पाएंगे कि उनके बच्चे अच्छे स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ रहे हैं और बाद में अच्छी नौकरियाँ और व्यवसाय पा रहे हैं। ये नेता समाज के लिए वही नीतियाँ क्यों नहीं अपनाते जो वे अपने परिवारों के लिए अपनाते हैं? इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि मुस्लिम समुदाय को अपनी मुक्ति (Freedom) के लिए काम करना चाहिए। इसकी शुरुआत तब हो सकती है जब वे खुद को वोट बैंक से आगे बढ़ाएँ। उन्हें ऐसे मुद्दों पर वोट देना चाहिए जो देश के हर समुदाय के लोगों के जीवन को बेहतर बनाएँ। अगर वे ऐसा करने में सफल होते हैं, तो उनका वोट राष्ट्र निर्माण में एक बहुमूल्य योगदान होगा।

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